पतझड़ के मौसम में ,
पेड़ों से विदाई के बाद,
सूखे पत्ते पड़े थे ,
सड़कों पर ,रस्तों पर,
पगडंडियों पर,गलियों में चौराहों पर,
उड़ते थे,हवा के बहने पर ,
कभी इस गली,कभी उस गली,
ना कोई उम्मीद,ना कोई बंधन,
अपनी ही मस्ती में मगन रहते थे,
ख़बर सबकी रखते थे,
कभी चौपाल में,कभी खलिहान में,
सुनते थे सभी की,कभी इधर की ,कभी उधर
की,
कभी प्रधान की,कभी किसान की ,
कभी जवान की,कभी आसमान की,
कभी माँ की, कभी एक बाप की,
कभी शिक्षक की, कभी विद्यार्थी की,
सभी की सुनते थे वे,
कभी हँसते,कभी सोचते,
सभी की है मुश्किलें,
पर चलना है,चलते ही जाना है,
सूखे पत्तों का भी सफर,
तब तक है चलता,
जब तक वे जला नहीं दिये जाते,
और ये क्रम चलता ही रहता है,
बसंत आने तक,
और अगले साल ,
फिर वही कहानी,
फिर वही पतझड़, फिर वही सूखे पत्ते........
Really thoughtful yar...acha likha h...bravo..:)
ReplyDeletethanks ...........
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